शुक्रवार, 18 जून 2010

कब सुखेंगे भोपाल के जख्म,क्यों मजबूर हैं हम

कब सुखेंगे भोपाल के जख्म,क्यों मजबूर हैं हम
भोपाल गैस त्रासदी के 26 साल कुछेक महीने बाद पूरे हो जायेंगे लेकिन पीड़ितों के जख्म पर मरहम लगने की कोई संभावना नजर नही आ रही है ,रही सही कसर 9 जून 2010 की अदालती फैसले ने पूरी कर दी है. इस मामलें मे अदालत कर भी क्या सकती थी क्योंकि सीबीआई ने मामूली धाराएं लगाकर भोपाल गैस के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन सहित अन्य आरोपियों के खिलाफ केस को कमजोर करने की कोई गुंजाइस नही छोड़ी थी. क्या हम भारतीयों की यही नियती है. सरकारी रिपोर्ट पर ही अगर भरोसा करे तो यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के टैंक नंबर 610 से निकली जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाने के कारण तकरीबन 15 हजार लोगो की मौंत हो गई .जो बच गये उनकी जीवन मौत से भी बदतर हो गया..हालांकि हरेक साल भोपाल और देश के कई दूसरे हिस्से में 3 दिसंबर को गैस पीड़ित लोग धरना प्रर्दशन कर सरकार से इंसाफ की भीख मांगते है लेकिन इससे सरकार की सेहत पर कोई असर नही पड़ता है. सरकार के लिए परिस्थितियां बिल्कुल सहज ही होती अगर टैलीविजन चैनलों पर ये नही दिखाया जाता है कि किस तरह हजारों मौतों का गुनेहगार वारेन एंडरसन नीले कलर के एम्बेस्डर को बड़े शान के साथ सुरक्षित हवाई अड्डे वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा पहुंचाया जा रहा हैं और इसके बाद से ही लोगो के जहन मे ये सवाल उठने लगा कि आखिर इतने बड़े गुनहगार को देश से सुरक्षित बाहर किसने भिजवाया....
जाहिर हैं कि 1984 मे देश के प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी थे और सीएम अर्जुन सिंह थे..कलेक्टर हो या एसपी उनके सामने नेताओं के आदेश के मानने के अलावा कोई विकल्प नही बचता हैं और अगर वारेन एंडरसन भोपाल और दिल्ली से सुरक्षित अमेरिका पहुंच जाता है तो इसमे अर्जुन सिंह और राजीव गांधी की भूमिका पर सवाल तो उठते ही हैं..कितना मजबूर होता है एक भारतीय और उसकी जिंदगी का कितना मतलब कितनी सरकार के लिए होती हैं ये उस समय के राजनेताओं द्वारा किये गये गैर जिम्मेदाराना रूख से स्पषट हो जाता है. भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित लोगो को आज भी इंसाफ का इंतजार है 84 के बाद कितनी सरकारे बदली लेकिन एंडरसन को अमेरिका से वापस लाने की ईमानदार कोशिश किसी भी सरकार ने नही की...जरा कल्पना कीजिए कि अगर अमेरिका में कोई भारतीय कंपनी का मालिक इतनी बड़ी घटना का जिम्मेदार होता तो क्या अमेरिका उस भारतीय को अमेरिका से बाहर निकलने देता..जैविक हथियार रखने के आरोप मे अमेरिका एक देश के पूर्व राष्ट्रपति को सरेआम फांसी देता है और दुनिया मुकदर्शक बनी रहती है. हालांकि सद्दाम हुसैन जो किया उसे माफ नही किया जा सकता है लेकिन जो गुनाह एंडरसन ने किया है क्या उसे इस अपराध के लिए माफ किया जा सकता है. आज ईराक हो या अफगानिस्तान हो इस बात का गवाह हैं कि अमेरिका की नजर में उसके नागरिकों के अलावा दूसरे देश के नागिरकों की जान माल की कितनी फिक्र है. वारेन एंडरसन ने कार पर सवार होने के पहले एक इंटरव्यू मे कहा था
NO arrest no house arrest I am free to leave India
कितना बड़ा तमाचा हमारे देश के नीति नियंताओं पर है...और कितना बड़ा सवाल हमारी न्याय प्रणाली पर भी उठता है. (मैं किसी भी राज्य के न्यायधीशों की नियत पर संदेह नही कर रहा हूं )
सवाल तो कांग्रेस के इरादों और सोनिया गांधी पर भी उठेंगे क्योंकि देश में उस समय कांग्रेस की ही सरकार थी और बगैर केंद्रीय नेतृत्व के संकेत के बिना एंडरसन की सुरक्षित विदाई का रास्ता भोपाल से तय नही हो पाता. प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि वारेन एंडरसन को छोड़ने का निर्णय भोपाल की क़ानून व्यवस्था को ध्यान मे रख कर किया गया था. अब सवाल ये उठता है कि 26 नवंबर 2008 को जब पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब को सेना ने जिंदा पकड़ा था तो क्या उस समय मुंबई की कानून व्यवस्था सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गयी थी.बिल्कुल नही...जनाब कल तक आपकी पार्टी भाजपा को ताने देती थी की आपकी सरकार के विदेश मंत्री आतंकवादियों को विमान मे बैठाकर कांधार ले जाती है लेकिन आपकी सरकार ने तो उस व्यक्ति को देश से बाहर सुरक्षित भेजा है जिस पर 25000 लोगो की मौत की जिम्मेदारी हैं..वैसे कांग्रेस पार्टी विदेशियों को देश से सुरक्षित बाहर और आरोप मुक्त करने मे ज्यादा माहिर है और ओत्तावयों क्वात्रोची का उदाहरण देश के सामने हैं खैर देश और भोपाल को इंसाफ चाहिए ..अगर अमेरिका अपने नागरिकों की जिंदगी बचाने के लिए काबूल और कांधार मे हमले कर सकता हैं तो भारत सरकार को भी भारतीयों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले एंडरसन या डेविड कोलमेन हेडली के प्रत्यर्पण करने के लिए कूटनीतिक और राजनीतिक मोर्चे पर हर संभव कोशिश करनी चाहिए. भारतीय आष्ट्रेलिया मे पीटते है और हमे आश्वासन के सिवा कुछ नही मिलता है . सवाल सिर्फ भोपाल की घटना को लेकर नही है बल्कि सवाल हमारी विदेश और कूटनीति पर भी जिस पर हमारी सरकार बड़ा गौरावान्वित महसूस करती हैं...लेकिन भारतीय सिर्फ ठगे ही जाते है....

सोमवार, 14 जून 2010

हाई री भाजपा,वाह री भाजपा

12 -13 जून को पटना मे भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई और शायद सभी जानते है कि इसमे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ साथ भाजपा के 6 राज्यों के सीएम भी शामिल हुए .हालाकि लेकिन गुजरात और नरेंद्र मोदी का मसला हमेशा से एक अलग विषय रहा है. 12 जून को अखबार मे एक विज्ञापन आया जिसमे मोदी और बिहार के सीएम नीतीश कुमार को एक साथ दिखाया गया जिससे व्यथित और गुस्से मे आकर नीतीश ने कानूनी कार्यवाई करने की धमकी दी और साथ साथ उन्होने यह भी कहा की बिहार मे मोदी का क्या काम .जिस तरह से नीतीश ने भाजपा को बिहार मे उसकी औकात बतायी है वो किसी भी सूरते हाल मे आश्चर्य की बात नही है . पहले उत्तरप्रदेश,फिर झारखंड मे शिबू सोरेन का भाजपा को ठेंगा दिखाया जाना ये साबित करता है भाजपा नेतृत्व मे किस तरह की उलझन है. मै यहां सिर्फ बिहार की बात करता हूं.नीतीश कुमार को नाराजगी इस बात को लेकर है कि उन्हे बिना बताये ही नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तस्वीर क्यो छपवाई गई . नीतीश कुमार की ये बात एक हद तक सही है ...लेकिन मोदी के साथ हाथ मिलाना मुझे नही लगता है कि ये राष्ट्र या बिहार के लिए शर्म की बात है.मोदी गुजरात राज्य के निर्वाचित सीएम है जिन्हे वहां की जनता ने दो बार भारी बहुमत से सत्ता मे पहुंचाया है. अगर नीतीश को मोदी से हाथ मिलाने मे परहेज है तो फिर भाजपा से पिछले 15 साल से गठबंधन क्यो गांठे रखा है. गुजरात दंगे के बाद एनडीए से रामविलास पासवान,एम करूणानिधी,ममता बनर्जी,फारूख अबदुल्ला,मायावती एक एक कर सारे नेताओं ने भाजपा का साथ छोड़ दिया लेकिन नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ क्यो नही छोड़ा है और छोड़ेगे भी नही क्योकि उन्हे भली भांति ये पता है कि वे बीजेपी के बिना सत्ता मे वापस आ नही सकते ,लालू प्रसाद उन्हे भाव देंगे नही और कांग्रेस मे इतना दम नही है कि वे भाजपा की भरपाई को वो पूरा कर सके...गुजरात दंगे के बाद जिस तरीके से मोदी को अलग थलग करने की कोशिश हुई वो सारी की सारी बेकार हुई है और मै ये विश्वास करता हूं कि गुजरात का दंगा गोधरा में 57 निर्दोष लोगो को तालीबानी तर्ज पर मारे जाने के कारण लोगो की तात्कालिक प्रतिक्रिया थी और मै ये भी मानता हूं कि मोदी के अलावा कोई और होता तो वो भी उसी ढंग से निपटता जैसे मोदी ने निपटा है क्योकि 1984 का दंगा और मार्च 2007 का नंदीग्राम वारदात या फिर 2008 मे असम मे आदिवासियों की सामूहिक रूप से हत्या इसका जीती जागती मिसाल है.हालांकि हिंसा किसी भी चीज का समाधान नही हैं
नीतीश कुमार ने भाजपा को एक तरह से उसकी औकात बिहार मे बतायी ठीक उसी तरह जिस तरह उड़ीसा मे नवीन पटनायक ने भाजपा को उसकी औकात बतायी थी. मै ये नही समझ पा रहा हूं कि एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी जिसकी 6 राज्यो मे अपने दम पर सरकार है वो अपने सहयोगी दलों के सामने इस तरह मजबूर क्यों है. जब कर्नाटक जैसे दक्षिण राज्य मे भाजपा अपनी सरकार बना सकती है तो फिर बिहार जैसे राज्य मे क्यो नही वहां तो पहले से भाजपा का अपना एक अच्छा खासा जनाधार है. भाजपा को यह पता करना पड़ेगा कि क्यो जनाधार वाले नेता को बिहार या झारखंड मे पार्टी लाइन से अलग कर दिया गया. क्यों साफ सुथरी छवि वाले बाबू लाल मरांडी के दामन को छोड़कर भाजपा को शिबू सोरने के हाथ को थामना पड़ा. मोदी भाजपा के साथ साथ गुजरात के सीएम है और भाजपा को चाहिए कि वो इस मसले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे. वो बताए कि उसके लिए भाजपा ज्यादा मायने रखती है या नीतीश कुमार. राहुल गांधी का उदाहरण उसके सामने है जिन्होनें मुलायम सिंह और लालू यादव को धकिया कर यूपी और बिहार मे अकेले कांग्रेस को चुनाव लड़वाया और नतीजे सबके सामने है. भाजपा को यह पता करना पड़ेगा कि 5 साल के बिहार के शासन काल के दौरान मे उसने जमीनी स्तर पर क्यो ऐसा नेतृत्व नही खड़ा किया जिसके बदौलत भाजपा खुद चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो पाती. बैसाखी के सहारे इंसान कभी दौड़ नही सकता है उड़ीसा मे नवीन पटनायक के सहारे 10 साल तक सत्ता का सुख भाजपा लेती रही और नवीन पटनायक ने एक ही झटके मे उड़ीसा मे भाजपा को उसकी औकात बता दी.स्वस्थ प्रजातंत्र की आवश्यक शर्त है कि विपक्ष मजबूत हो लेकिन भाजपा पिछले 6 साल मे ऐसा करने मे असफल रही हैं. मोदी गुजरात के लिए ही नही पूरे भारत के लिए मिसाल है जिन्होने अपने कुशल नेतृत्व से गुजरात को शिखर पर पहुंचाया है. कुछ लोग ये कहते हैं कि गुजरात मे पहले से ही अकूत संपदा है मोदी ने कुछ नही किया . फिर बिहार के पास भी तो 2000 तक कोयला, अभ्रक, लोहा, यूरेनियम की खदानों का भंडार था क्यो बिहार विकास की दौड़ मे सबसे पिछड़ा रह गया. मै बिहार के भागलपुर से हूं और मै इस बात का गवाह हूं कि किस तरह जिला मुख्यालयों मे भी 18 घंटे तक लाइय नही आती है. स्कूल मे टीचर नही है तो अस्पतालों मे कोई डाक्टर नही. विश्वविधालयों के सेशन 5 -5 साल तक लेट होता है और छात्र लालटेन की रोशनी मे अपनी परीक्षा की तैयारी करते हैं.गुजरात को खुशहाल बनाने के लिए वहां की सरकार ने सुजलां सुफलां और गोकुल ग्राम परियोजना को धरातल पर उतार कर वहां के लोगो को अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का पूरा अवसर दिया ,बिहार के नेता बताए कि पिछले 60 सालों मे क्या उनके पास ऐसी कोई योजना है ..हालांकि पिछले कुछ सालों मे सड़क और कानून –व्यवस्था मे काफी सुधार आया है. नीतीश कुमार के साथ साथ बिहार के तथाकथित तारणहारों को यह जवाह देना होगा कि आजादी के 56 साल बाद भी बिहार के हिस्से मे कोई सेंट्रल यूनिवर्सिटी क्यो नही ,क्यो नही एम्स या आईआईएम की ब्रांच स्थापित नही हो पायी . क्यो नही बिहार मे निफ्ट की कोई शाखा खुल पायी. क्योंकि दिल्ली ,अहमदाबाद,सुरत,मुंबई, या जालंधर से बिहार आने वाली ट्रेनों मे बिहारी जानवर की तरह यात्रा करने पर विवश रहते है जबकि वे पूरे पैसे भारतीय रेलवे को चूकता करते है.क्यों बिहारी गुजरात ,दिल्ली या मुंबई रोजगार करने के लिए जाए बिहार को इस तरह से प्रगति क्यों नही हो पायी कि दूसरे राज्यों के लोग बिहार शिक्षा और रोजगार के लिए आते .वजह साफ है बेरोजगारी और भूखमरी केवल तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले नेताओं ने बिहार की जनता की पीड़ा को नही समझा. आप बिहार जाकर खुद देख सकते है मई जून के महीने मे जब निम्न और मध्यमवर्गीय परिवार के अभिभावक अपने बच्चों को बिहार से बाहर एडमीशन करवाने के लिए एड़ी चोटी एक कर देते है और इसलिए बिहार से प्रतिभा और पैसे दोनों का पलायन भारी पैमाने पर हुआ. वहां पर कोई ऐसा मैनेजमेन्ट,पत्रकारिता, टेक्नालांजी या फिर लां का ऐसा विश्वसनीय संस्थान खुल नही पाया जिस पर वहां के छात्र भरोसा कर सके..आपकी किसी भी व्यक्ति से मतांतरण हो सकता है और राजनीति मे ऐसा होता भी है लेकिन सिर्फ सियासी मकसद पूरा करने के लिए किसी लोक्रपिय और सटीक काम करने वाले चेहरे को इस तरह रूसबा करना किसी भी दृष्टिकोण से जायज नही हैं....

सोमवार, 17 मई 2010

कहां तक ..... कब तक !



सवाल...संशय और ख़ौफ़ ! नक्सली के खूनी खेल से रक्तरंजित हुई दंतेवाड़ा की जमीं पर जिस किसी की भी निगाह जा रही है...ये तीनों बातें उसके ज़ेहन में कौंध रही है...सवाल इस बात का ... कि आखिर कब तक नक्सल का नासूर बेगुनाहों का खून पीता रहेगा... संशय इस बात का ... कि आखिर सरकार की नींदें कहां और कितनी शहादत के बाद खुलेगी....और ख़ौफ़ इस बात का....कि क्या हम वास्तव में सुरक्षित हैं?। इन कौंधते सवालों के सिलसिलों के बीच हर दिन बेगुनाहों की जान जा रही है...मासूमों की चीखें .... चीत्कारें.... जिस किसी की भी कानों में सुनाई पड़ रही है...उसका सीना पसीज रहा है...लेकिन पता नहीं क्यों ? छत्तीसगढ़ की जनता के रहनुमा बनने का दंभ भरने वाली रमन सरकार का सीना कौन से पत्थर का बना हुआ है...जो इन मासूमों के जख्म को महसूस कर पा रही है और ना हीं बेगुनाहों की चीखों को सुन पा रही है। आज जवानों के हाथ नक्सलियों के खात्मे के लिए मचल रहे हैं... जनता भी जान जोखिम में डालकर नक्सलियों के खिलाफ मोर्चा लेने के लिए तैयार बैठी है...तो फिर हमारी सरकारें क्यों नामर्दी दिखा रही है...क्यों सरकार ये नहीं कह पा रही....!!!! बस अब बहुत हो गया...अब होगी आर पार की लड़ाई। दंतेवाड़ा में पिछले महीने 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत के बाद एक बार फिर करीब 40 बेगुनाह नक्सलियों का शिकार बन गए। घटना के बाद केंद्र सरकार ने फिर से अपना रोना रोया... और राज्य सरकार ने अपनी बेबसी बताई.... लेकिन मौत का सिलसिला जारी है और सरकार की नामर्दी से ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। । हर दिन बढ़ते मौत के ग्राफ को देख दुख भी होता और आश्चर्य भी....लेकिन सच कहूं इन सबों से इतर शर्म भी आती है...! दुख होता है ... बेगुनाहों की लाश देखकर...आश्चर्य होता है सरकार की कार्यप्रणाली को देखकर और शर्म आती है सरकार की नपुंसकता को देखकर। क्या सरकार को लोगों की जान की परवाह नहीं...या फिर सरकार ने बर्दाश्त की हद को लाखों बेगुनाहों की मौत तक तय कर रखी है। सच कहूं ! अगर इतनी सारी मौत के बदले केवल एक नेता या मंत्री हादसे का शिकार हो जाता तो...तुरंत सरकार कार्रवाई करने को तैयार हो जाती .... शायद सरकार की नजर में मंत्री की मौत का मोल आम लोगों की मौत के मोल से ज्यादा होता । पता नहीं सरकारें ये क्यों सोचती ? कि मौत के बाद जितना दुख खास लोगों के परिवारों को होता है... उतना ही दुख आम लोगों और गरीब लोगों के परिवारों को भी होता है... सोई सरकार अब तक जाग जाओं ... क्या उनका काम अब बस घटना का इंतजार करना... मौत पर अफसोस जताना और मुआवजे का ऐलान करने का ही रह गया।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

आईपीएल,ललित मोदी और विवाद

आईपीएल सीजन 3 के मैदान की जंग खत्म तो हो गई लेकिन असली जंग अभी भी समाप्त नही हुई है और हरेक मंच और हरेक स्तर पर ऐसे चेहरे की तलाश की जा रही है जिसमे पारदर्शिता हो और जिसमे आईपीएल पर लगे धब्बे को नये सिरे से धोने की क्षमता भी हो.सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था और सभी लोग मैदान पर दिखने वाले रोमांच का आनंद ले रहे थे. किसी ने यह सोचा भी नही था आईपीएल से हो रहे बेसुमार पैसे का स्रोत क्या है और किस माध्यम से आईपीएल में इतने पैसे का निवेश हो रहा था.शायद मीडिया को भी नही ...लेकिन 11 अप्रेल को आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी के उस बयान से हड़कंप मंच गया जिसमे उन्होने यह कहा कि आईपीएल की नई कोच्ची टीम की फ्रेंचाइजी में विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की महिला मित्र सुनंदा पुष्कर की भी हिस्सेदारी है..... हालांकि शशि थरूर का विवादों से रिस्ता काफी पुराना है.... और उन्हे हटाकर प्रधानमंत्री ने दूरदर्शिता का ही परिचय दिया है...इसके बाद मचे बवंडर के बीच 18 अप्रेल को भारी मन से थरुर को इस्तीफा देना पड़ा....21 अप्रेल को आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय ने आईपीएल से जुड़े संगठनो पर छापामार कार्यवाई की..... 25 अप्रेल को आईपीएल के फाइनल मैच के तुरंत बाद ललित मोदी के आईपीएल के कमिश्नर पद से हटा दिया गया लेकिन आम जनता के मन मे कई सवाल अभी भी है,क्योकि केंद्र सरकार के दो मंत्री शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल सीधे सीधे आईपीएल के लपेटे मे आ रहे है, हालाकि शरद पवार के रूतबे को देखते हुए ऐसा नही लगता है कि कांग्रेस इनके विरुद्ध कोई कदम उठा पाएंगी,वैसे भी मंत्री का पहला काम है कि जिस विभाग की जिम्मेदारी उन्हे दी गई है पहले वे संभाले लेकिन देश जानता है कि पवार इसमे असफल रहे है..आइये जाने उस शख्स के बारे मे जिसने आईपीएल को एक लोकप्रिय ब्रांड बनाने मे अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जिसके आक्रामक और डिप्लोमेटिक कैंपेन से आईसीएल अपनी बोरिया बिस्तर समेटने पर मजबूर हो गया जी हां हम बात कर रहे है आईपीएल से बर्खास्त ललित मोदी के बारे मे.....
अगर जगमोहन डालमिया ने क्रिकेट को एक आसानी से बिकने वाला ब्रांड बनाया तो ये ललित मोदी है थे जिन्होने क्रिकेट की लोकप्रियता को पैसे मे बदलकर आईपीएल के खजाने मे मात्र तीन सालो मे 2 बिलियन डालर जमा करा दिये ....
मोदी के दादाजी राजा बहादुर गुजरमल की गिनती देश के प्रसिद्ध उधोगपतियों मे होती है जिन्होने मोदी ग्रुप आफ इंडस्ट्री की स्थापना की थी. मोदी ग्रुप आंफ इंडस्ट्रीज के अंतर्गत मोदी सुगर,मोदी वनस्पति,मोदी पेंटस,मोदी आयल,मोदी स्टील,मोदी सिपिंग एण्ड विभिंग,मोदी साप एण्ड मोदी कारपेट कंपनी आती है .राजा बहादुर की तीन संताने थी कृष्ण कुमार मोदी,भूपेंद्र कुमार मोदी,और विनय कुमार मोदी.कृष्ण कुमार मोदी की तीन संताने थी चारू मोदी भाटिया,ललित मोदी, और समीर कुमार मोदी. अमेरिका के नार्थ करोलिना में ड्रग्स और अपहरण मे सजा काटने के बाद भारत आये मोदी ने अपने पिता के के मोदी के व्यवसाय को संभाला लेकिन मोदी का इसमे मन नही लगा, 90 दशक के शुरूआत मे जब केबल और सेटेलाइट प्रसारण का व्यवसाय तेजी से पांव पसार रहा था मोदी ने इस व्यवसाय के नब्ज को पहचान कर मोदी एंटरटेनमेन्ट नेटवर्क (मेन) की स्थापना की1.1993 मे मेन ने भारत मे व्यवसाय को बढ़ाने के लिए अमेरिकी की प्रसिद्ध कंपनी वाल्ट डीजनी से10 साल का समझौता किया. समझौते के अनुसार जहां इस व्यवसाय मे वाल्ट डीजनी के 51 प्रतिशत शेयर थे वही बाके बचे शेयर मेन के हिस्से मे आये.. इन दोनो कंपनी ने 10 साल के समझौते के शुरूआत दौर मे 30 से 40 करोड़ रूपये मार्केट से कमा लिये..1995 मे वाल्ट डिजनी ने अपनी सिस्टर कंपनी ईएसपीएन के भारत मे वितरण के लिए मेन से समझौते किये ताकि इएसपीएन को केबल पर पेड स्पोर्टस चैनल बनाकर क्रिकेट के दर्शकों से भरूपर पैसे कमाया जा सके और ऐसा ही हुआ .इएसपीएन भारत मे चुनिंदा पेड चैनल मे से एक था.कुछ ही समय मे इएसपीएन भारत मे ज्यादा देखे जाने वाले स्पोर्टस चैनल के रूप मे मशहूर हो गया.. 2001-02 आते आते मेन खेल प्रसारण वितरण के जरिये 70 करोड़ रूपये कमाने मे कामयाब रहा..लेकिन मोदी इस धंधे को आगे ले जाने मे असफल रहे और ऐसा कहा जाना लगा कि मेन के किसी दूसरे कंपनी के समझौते का अंत कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही खत्म होता है यानि किसी भी दूसरी कंपनी के साथ व्यवसायिक समझौता ज्यादा सौहार्दपूर्ण वातावरण मे समाप्त नही हुआ.मेन ने डीडी स्पोर्टस के साथ भी खेल को लेकर व्यवसायिक समझौते किये लेकिन कहा जाता है कि यह मामला अभी तक कोर्ट मे ही पड़ा है...2004 तक आते आते मोदी की मेन कंपनी की हालत पतली हो गयी है और इसके कर्मचारियों को सैलरी के भी लाले पड़ गये. मुंबई छोड़कर बाकी जगह पर स्थित मेन कंपनी के कार्यालय बंद हो गये.2007 मे मोदी ने आखिरी दाव लगाया . मोदी ने ट्रेवल व लिविंग चैनल की तर्ज पर पहले चैनल वोएजेस को लांच करने का प्लान बनाया .हालांकि यह योजना धरी रह गई.जाहिर है कि मोदी तभी सफल होते है जब उन्हे खुले हाथ काम करने को मिले.साझेदारी या परिवार की कंपनियों मे वो सफल नही रहे.लेकिन जब राजस्थान क्रिकेट एसोसिएसन और बाद मे आईपीएल अपने दम पर चलाने का मौका मिला तो ललित मोदी ने अपनी कार्यकुशलता से आईपीएल के खजाने को पैसे और शोहरत से भर दिया..लेकिन व्यवसाय का नियम है कि आपको पारदर्शिता के साथ परिवारवाद के नीतियों से दूर रहना होगा और मोदी यहां असफल रहे . किसी भी सही चीजो का शौकीन होना कोई बुरी बात नही है लेकिन जनता की भावना किसी चीज मे जुड़ी है और उसकी भावनाओं का जब आप अपने लिए इस्तेमाल करते है तो उसका अंजाम भी गलत होता है.....मोदी ने अपने आईपीएल कमिश्नर पद के दौरान अपने साढ़ू सुरेश चेलाराम को राजस्थान रायल्स मे 44 प्रतिशत शेयर दिलवाये.दामाद गौरव वर्मन की कंपनी को मोबाइल,बेवसाइट आदि को ठेका भी मनमाने दाम मे बेचा..
मोदी के बारे मे कहा जा सकता है ---He is a men with great ideas but execution has always been his weakness…..

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

तथाकथित बौद्धिक पाखंड, और बेशर्मी एक चैनल की

क्या अंतिम संस्कार भी जोर शोर से होता हैं
मित्रो,
आज 20 अप्रेल और पूरे 14 दिन हो गये -6 अप्रेल 2010 का दिन देश के साथ साथ 76 परिवारों के लिए भी कहर बनकर टूटा जब दंतेवाड़ा के ताड़मेटला के जंगल मे नक्सलियों ने एम्बुस लगाकर 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया. नक्सलियों द्वारा किये गये इस घृणित कृत्य की पूरे देश ने आलोचना की और गृह मंत्री के साथ पूरा विपक्ष एक जुटता के साथ खड़ा था. इस घटना के बाद कई माताओं ने अपने बेटे को खो दिया, कई बहने ये कभी ना चाहेंगी कि उनके जीवन मे कभी रक्षा बंधन भी आए, कई औरते ये कभी नही चाहेंगे कि उसकी जिंदगी मे करवा चौथ नाम का कोई पर्व आए.
लेकिन इसी देश मे जब संचार क्रांति अपने चरम पर है और लोग किसी भी समाचार के लिए विजुअल मीडिया पर यकीन करते है .उसी दौर मे एक ऐसा भी चैनल है जो अपने आप को अन्य चैनल से अलग मानता है और इस चैनल के बारे मे कुछ लोग ये भी कहते हैं यहां देश के सर्वश्रेष्ठ संपादक,रिपोर्टर ,और एंकर अपनी सेवा देते है .
और यही वह चैनल है जो किसी भी रिपोर्ट पर अपने चैनल को दूसरे अन्य हिन्दी चैनल की तुलना करने मे भी पीछे नही हटता..इसी चैनल पर इसके रिपोर्टर रोज रात देश देश में मूल्यों और आदर्शों की गिरावट से लेकर नैतिकता और सांस्कृतिक मूल्यों की बात करके ये जताने की कोशिश करते हैं कि इस देश की संस्कृति और मर्यादा का ठेका उन्होंने ही ले रखा है।लेकिन इसी चैनल द्वारा छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले में शहीद हुए सीआरपीएफ के जवानों की खबर को दिखाते समय शहीद हुए तमाम जवानों का जो अपमान किया है उसका यह चैनल शायद ही कभी पाप धो पाए। 7 अप्रैल को सुबह 9 बजे से इस चैनल पर दिखाया जा रहा था कि ' नक्सली हमले में शहीद हुए सैनिकों के शव उनके घरों तक पहुँचाए जाएंगे और उनके अंतिम संस्कार की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही है।' देश के लिए शहीद होने वाले किसी शहीद का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है कि इस देश का कोई चैनल उसके अंतिम संस्कार की तैयारियों को जोर-शोर से की जा रही तैयारियाँ बताए। क्या इस तथाकथित बौद्धिकवादी एंकर और तमाम हिन्दी प्रेमी ये समझाने की कोशिश करेंगे कि इस देश में किसी के अंतिम संस्कार की तैयारियाँ जोर शोर से किए जाने की परंपरा कहाँ से शुरु हुई? क्या इस चैनल में बैठे लोग दिमागी रूप से इतने दिवालिये हो चुके हैं कि उनके पास शहीदों के सम्मान में कहने के लिए दो शब्द भी नहीं हैं? क्या इस चैनल की समाचार वाचिका ने शहीदों के अंतिम संस्कार की खबर को सानिया मिर्ज़ा की शादी की खबर समझा था जो उनके अंतिम संस्कार की तैयारियाँ जोर-शोर के की जाने की बात बार बार दोहराई जा रही थी।
जरा इस चैनल की करतूत दूसरी करतूत
बात निकली है तो एक बात इस चैनल को फिर से याद दिला दें कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में ढाँचा गिराए जाने के दौरान लालकृष्ण आडवाणी द्वारा दिए गए भाषण को लेकर उनकी सुरक्षा में तैनात अंजू गुप्ता द्वारा 26 मार्च को दिए गए बयान को लेकर इस चैनल ने लालकृष्ण आडवाणी पर तीखी टिप्पणियाँ प्रस्तुत करते हुए ये जताने की कोशिश की थी लालकृष्ण आडवाणी कितने झूठे और बेईमान किस्म के नेता हैं. लेकिन लोकसभा चुनावों के ठीक पहले इसी चैनल ने इन्हीं लालकृष्ण आडवाणी को देश की सेवा के लिए पुरस्कार से देकर सम्मानित किया. जब यह चैनल लालकृष्ण आडवाणी की योग्यताओं के लिए उन्हें पुरस्कृत कर चुका है तो फिर वे झूठे और बेईमान किस्म के नेता कैसे हो सकते हैं? कहीं ये तो नहीं कि इस चैनल ने आडवाणी को पुरस्कार इसलिए दिया था ताकि वे प्रधान मंत्री बन जाएँ तो उसका पुरस्कार इस चैनल को भी मिल सके.
अब आप ही बताये कि हर हमेशा दोषियों को कटघरे मे खड़े करने वाले लोगो पर क्या कार्यवाई होनी चाहिए.....
ये ही देश के तथाकथित बुद्धिजीवी हैं जो देश के बंटाधार पर लगे हैं.
जरा इस चैनल की बेशर्मी और जवानों के प्रति अनादर का भाव देखे .
7 अप्रैल, बुधवार की रात 9 बजे प्रसारित किए जाने वाले समाचार के साथ एक मोबाईल कंपनी के विज्ञापन के साथ अंगेजी शब्द 'Moment of the Day' के साथ नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों के शव दिखाए गए। शहीद जवानों के साथ ये घिनौना मजाक देखकर ऐसा लगा मानो शहीदों की शहादत को अंग्रेजी के पैरों तले रौंदा जा रहा हो। पहले तो हमको लगा कि हमारी ही अंग्रेजी का स्तर घटिया है और हमको 'Moment of the Day' का मतलब नहीं मालूम होगा, इस चैनल और इसके एंकर तो समझदारों से भी बड़े समझदार हैं, देश के दो दो कौड़ी के नेताओं से लेकर बड़े बड़े और घटिया नेताओं के साथ देश की हर समस्या पर गंभीरता से साक्षात्कार करते हैं, उनकी भी सुनते हैं और उनको सुनाते भी हैं, उनकी अंग्रेजी हमारी दौ कौड़ी की अंग्रेजी से ज्यादा अच्छी होगी। इसलिए हमने 'Moment of the Day' का अर्थ इंटरनेट पर ही खोजने की कोशिश की। जब हमने 'Moment' शब्द का अर्थ अलग अलग वेब साईट और शब्दकोषों में देखा तो हमारे पैरों तले जमनी ही खिसक गई। 'Moment' का मतलब था 'कोई ऐतिहासिक या यादगार दिन या ऐसा दिन जो हमारी जिंदगी में बार बार आए।'
क्या इस देश के वीर जवानों की शहादत इस चैनल के लिए एक ऐसा दिन है जो बार बार आना चाहिए। चैनल में बैठे अंग्रेजी के गुलामों को चाहिए कि वे खबरें देने के साथ ही देश की संस्कृति और मूल्यों को भी जान लें। ऐसा अगर किसी और देश में होता तो उस देश के लोग और वहाँ की सरकार उस चैनल के तमाम कर्ताधर्ताओं को सींखचों में बंद कर देती। लेकिन ये तो इस देश का दुर्भाग्य है कि इस देश पर वे लोग राज कर रहे हैं जिन्हें देश की भाषा, संस्कृति और मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में विदेशी मानसिकता से चलेन वाले ऐसे चैनल अगर इस देश के शहीदों की शहादत से लेकर यहाँ की संस्कृति और मूल्यों के साथ खिलवाड़ करे तो उनका क्या बिगड़ सकता है?
अंग्रेजी शब्द मोमेंट का क्या मतलब होता है ये आप भी देखिए और ये भी विचार कीजिए कि क्या सैनिकों के शव के साथ 'Moment of the Day' दिखाकर इस चैनल ने देश के इन शहीद जवानों का अपमान नहीं किया है?
दोस्तो आप समझ गये होंगे कि मै किस चैनल की बात कर रहा हूं..
मैने पहले भी कहा था और इस बात मे पूरी तरह यकीन रखता हूं कि मीडिया संमाज का दर्पण होता है और अगर दर्पण पर धुंध पड़ जाए तो लोग उस दर्पण को देखना भी पसंद नही करते है, समाचार चैनल को किसी भी विचारधारा या पार्टी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से प्रभावित हुए बिना काम करना चाहिए ताकि लोगो का विश्वास बना रहना चाहिए...
मै इस चैनल की बुराई नही करता हूं लेकिन जो सच्चाई है उसे आपके सामने हमने पेश किया हैं....

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

नक्सली हिंसा और रक्तरंजित दंतेवाड़ा

रक्तरंजित दंतेवाड़ा और हत्यारे नक्सलीं
एक साल से भी कम वक्त मे नक्सली ने एक बड़ी वारदात को अंजाम देते हुए 76 जवान को मौंत के घाट उतार दिया. 6 अप्रेल 2010 छत्तीसगढ़ के इतिहास की सबसे रक्तरंजित सुबह बनकर आयी जब पूरी दुनिया ने नक्सलवाद का सबसे क्रूरतम और घिनौना चेहरा देखा, और 76 परिवारों मे किसी ने भाई, तो किसी ने पिता तो किसी ने अपना पति को खो दिया. ये पहला मौका नही जब नक्सलियों ने सुरक्षाकर्मियों को अपना निशाना ना बनाया हो इससे पहले भी उन्होने सुरक्षाकर्मियों के साथ साथ आम नागरिकों को भी मौत के घाट उतारा है लेकिन एक साथ इतने जवानों का नरसंहार उन्होने पहली बार किया है .हालांकि नकस्लियों के लिए नरसंहार कोई नयी बात नही है.भारत मे दुर्घटनाये घटती है तीन चार दिन तक लोग आहत दिखते है सरकारे औपचारिकताएं पूरी करती है और जिंदगी फिर उसी ढर्रे पर चलने लगती हैं. लेकिन एक सवाल जिसका जवाब आज तक नही मिल पाया है कि आखिर कब तक सुरक्षाकर्मी या सामान्य नागरिक नक्सली हिंसा के शिकार होते रहेंगे. सीधी सी बात है जिसका खोता है वही ढूंढ़ता है और जिन 76 लोगो को नक्सलियों ने निशाना बनाया है उसका दर्द भी इन 76 परिवारों को ही होगा. दंतेवाड़ा के ताड़मेटला का जंगल जहां पर ये घटना घटी वह नक्सलियों का गढ़ कहा जाता है जहां सरकार अपनी पकड़ बनाने के लिए प्रयास कर रही हैं.4 अप्रेल 2010 से सीआरपीएफ की 62 वी बटालियन की एक कंपनी ग्रीन हंट अभियान के तहत सर्चिंग मे लगी थी.इस कंपनी मे कुल 82 जवान और आफिसर शामिल थे.अभियान में लगे जवान दिन भर सर्चिंग के बाद चिंतलनार थाने में कैंप करते थे. घटना की रात जवान वही सो रहे थे.नक्सलियों ने जवानों की गतिविधियों को ध्यान में रखकर सोची समझी साजिश के तहत एम्बुस लगाया.इससे पूरी कंपनी उनके घेरे में फस गई और देखते ही देखते ही 76 जवान मौंत के गाल मे समा गये.हमला करने वाले नक्सलियों की संख्या 1000 से ज्यादा थी और आप समझ सकते है कि 82 जवान किस तरह हजार नक्सलियों का सामना कर पाते. लेकिन कब तक नक्सली अपने रणनीति मे सफल होते रहेंगे और कब इस देश से नक्सलियों का खात्मा होगा. जब श्रीलंका से एलटीटीई का खात्मा हो सकता है पंजाब से आतंकवाद का खात्मा हो सकता है तो भारत से नक्सली और नक्सली विचारधारा को क्यो नही खत्म किया जा सकता है. कुछ लोग यह तर्क देते है कि हिंसा के रास्ते नक्सली समस्या का समाधान नही हो सकता है लेकिन एलटीटीई या पंजाब से आतंकवाद का समाप्ति भी तो सैन्य तरीके से ही तो हुई .क्योकि मानवता के हत्यारे ये नक्सली कानून या संविधान की भाषा नही समझ सकते है . अब समय आ गया है कि किसी भी मानवाधिकार की कोई बिना परवाह करते हुए इस नक्सलियों से कठोरतम तरीके से निपटा जाए. देश मे इस समय नक्सलियों के खिलाफ वातावरण है और सरकार को चाहिए कि इस वातावरण का उपयोग कर नक्सलियों को उड़ीसा,आंध्रप्रदेश,छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र,झारखंड,बिहार से समाप्त कर दे .क्योकि कब तक हम नक्सली समस्या और हिंसा को टालते रहेंगे और कब तक देश के जवान और भोली भाली जनता नक्सली हिंसा का शिकार बनते रहेंगे. इसमे कोई शक नही है कि नक्सली हिंसा हमारी 60 सालों की राजनीतिक और प्रशासनिक असफलता का नतीजा है .सरकारी तंत्र में फैला भ्रष्टाचार, कुछ मुट्ठीभर लोगो मे देश की संपदा का बड़ा हिस्सा होने से निरक्षर और युवकों मे निराशा का वातावरण है और इसे दूर करने के लिए पुख्ता प्रयास करने की आवश्यकता है लेकिन इस तर्क के आड़ मे नक्सलियों से कोई हमदर्दी नही दिखानी चाहिए क्योकि जिस राह पर नक्सली चल रहे है और जो उनका लक्ष्य है वह देश की एकता और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो रहे है. पहले ही सरकार ने इस मामले मे उदासीनता का परिचय दिया है लेकिन ईमानदारी और पारदर्शिता से अगर सारी कल्याणकारी योजनाओं को धरातल पर उतारा जाए तो भोले भाले आदिवासी नक्सलियों के बहकावे मे नही आएंगे. सुरक्षा तंत्र,स्थानीय तंत्र,खुफिया तंत्र मे समन्वय की जोरदार आवश्यकता है जिसके आधार पर नक्सलियों को मुहतोड़ जवाब दिया जा सकता है... ताकि फिर कोई निर्दोष या निहत्थे नक्सलियों के निशाने पर ना आये पाये.बिना किसी रहमदिली के नक्सलियों के खात्मे का वक्त आ गया है....और हम उम्मीद करते है कि जिस तरह भारत ने दूसरे अन्य संकट पर विजय पायी है उसी तरह नक्सली हिंसा पर भी विजय मिलेगी.. एक बात और अगर किसी भी स्तर पर तथाकथित बौद्धिक वर्ग के लोग नक्सलियों का समर्थन करते है तो ऐसी आवाज और ऐसे समर्थन के खिलाफ भी कठोरतम कार्यवाई की जानी चाहिए क्योंकि इन मावनाधिकारवादियों ने नक्सली हिंसा के शिकार जवानों के परिवारों की पीड़ा जानने की कोई कोशिश कभी नही की है.

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

...अब पूरी दुनिया को बना दो निकम्मा !


क्रिकेट ने तो अभी तक सिर्फ एशियाई मुल्क को ही निकम्मा बनाया था, लेकिन अब लगता है पूरी दुनिया ही निकम्मी हो जाएगी। क्रिकेट के पीछे अभी तक तो सिर्फ हम..हमारा पड़ोसी पाकिस्तान...बांग्लादेश और श्रीलंका ही भागा करते थे..लेकिन अब चीन..अमेरिका..जर्मनी और जापान की टीमें भी क्रिकेट के चौके-छक्के के पीछे भागते हुए दिखाई देगी। वर्ल्ड कप...चैंपियंस ट्रॉफी जैसे बड़े आयोजन के बाद जब आईपीएल का क्रिकेट का नया अवतार हुआ तो क्रिकेट का साख भी बढ़ी और लोकप्रियता भी...लेकिन साथ ही सवाल भी उठा कि क्या क्रिकेट की आड़ में दूसरे खेल तबाह तो नहीं हो रहे ...। जवाब मिला हो या नहीं ... ये तो पता नहीं... लेकिन अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक काउंसिल ने जब से क्रिकेट को ग्रीन स्गिनल दिखाई है..तब से ये बहस जिंदा जरूर हो गई है । ओलंपिक की अहमियत इसलिए अभी तक सबसे ज्यादा है क्योंकि ... स्टेमिना .. कुशलता और धैर्य का इसी आयोजन (ओलंपिक) में सबसे बड़ा इम्तिहान होता है... इस आयोजन में कई ऐसी स्पर्धा शामिल होती है...जो विश्व में या तो लोकप्रिय नहीं है ... या फिर काफी पिछड़ी है।
क्रिकेट फिलहाल सबसे लोकप्रिय खेल है...और जाहिर है अगर ओलंपिक में इसकी इंट्री होगी तो वो इंटरटेन करने के मामले में बाकि सारे खेलों को दबा देगा। अभी तक ओलंपिक में सिर्फ 26 खेल में 30 वर्ग के 300 स्पर्धाएं ही आयोजित होती थी... लेकिन 2016 में रियो डि जेनारियो में होने वाले ओलंपिक में दो खेल और बढ़ जाएंगे...क्योंकि इस ओलंपिक के लिए आयोजन समिति में गोल्फ और रग्बी को मंजूरी दे दी है। लेकिन 2020 ओलंपिक में खेलों की संख्या और भी बढ़ जाएगी...क्योंकि आयोजन समिति ने इस वर्ष के ओलंपिक में क्रिकेट के साथ-साथ क्लाइम्बिंग के साथ-साथ पावर बोटिंग को भी शामिल कर लिया है। सवाल ना रग्बी.. ना गोल्फ.. ना पावर बोटिंग और ना तो क्लाइम्बिंग को ओलंपिक में शामिल करने पर है.. सवाल है तो क्रिकेट पर ...सवाल नहीं डर है..... डर इस बात का.... कि कहीं क्रिकेट का बुखार पूरी दुनिया को ही अपनी चपेट में ना ले ले..... क्रिकेट में मैडल जीतने के चक्कर में अमेरिका.. रुस..और जर्मनी जैसी विश्व की टॉप मेडलिस्ट टीम दूसरे खेल से अपना ध्यान भटकाकर सिर्फ क्रिकेट के पीछे ही ना भागने लगे। ऐसे देखा जाए तो क्रिकेट को ओलंपिक में शामिल करना हमारे लिए ख़ुशख़बरी ही है...क्योंकि अगर ओलंपिक में क्रिकेट को शामिल किया गया तो भारत की टीम ही गोल्ड मैडल की प्रबल दावेदार होगी। साफ है कि क्रिकेटरों के लिए और एशियाई देश के लिए भले ही ओलंपिक समिति का फैसला एक ख़ुशख़बरी हो....लेकिन बाकी खेलों के लिए ये अच्छी ख़बर बिल्कुल भी नहीं हैं।